बंधुओं आज प्रस्तुत है, अनुराग भाई के अद्वितीय हिंदी इंद्रजाल संग्रह से हिन्दी साहित्य की एक महानतम रचना का कॉमिक रूपांतरण:
इस कॉमिक की खाशियत यह है कि इसमें मूल ग्रंथ की चौपाइयों या उसके अंशों के साथ समकालीन हिंदी भाषांतर भी है|
रामचरितमानस अधिनायकों और उनके बलिदानों की कहानी है| यह वर्णों के विभिन्न प्रकार और उनके व्यवहार, रवैया, संचार और नेतृत्व की अलग शैली की कहानी है| वैसे तो माना जाता है यह मुख्यतः उत्तर भारत के हिन्दुओं के घर- घर पाया जानेवाला धर्म ग्रंथ है, लेकिन जो नीति और मर्यादा पुरुषोतम का उदाहरण इसमें दी गयी है, वो धर्म, प्रदेशों और देशों की सीमाओं से बहुत ऊपर है|
रामचरितमानस शब्द "राम", "चरित" (चरित्र) और "मानस" (सरोवर) शब्दों के मेल से बना है अर्थात् "राम के चरित्र का सरोवर"।रामचरितमानस को सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसी कृत रामायण' भी कहा जाता है| इस महाग्रंथ के रचियता गोस्वामी तुलसीदास जी (1532 -1623) ने बालकाण्ड में स्वयं लिखा है कि उन्होंने रामचरितमानस की रचना का आरंभ अयोध्यापुरी में विक्रम संवत् 1631 (1574 AD) के रामनवमी (मंगलवार) को किया था| गीताप्रेस गोरखपुर के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार के अनुसार रामचरितमानस को लिखने में गोस्वामी तुलसीदास जी को दो वर्ष सात माह एवं छब्बीस दिन का समय लगा था और संवत् 1633 (1576 AD) के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन उसे पूर्ण किया था|
रामचरित मानस की रचना उस समय की अवधी भाषा में की गई थी जो कि हिंदी की ही एक शाखा है| । मानस में संस्कृत, फारसी और उर्दू के शब्दों की भरमार है। तुलसीदास ने अवधी और ब्रज भाषा के मिले-जुले स्वरूप को प्रचलित किया। तुलसीदास ने संज्ञाओं का प्रयोग क्रिया के रूप में किया तथा क्रियाओं का प्रयोग संज्ञा के रूप में। इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। तुलसीदास ने भाषा को नया स्वरूप दिया।
अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं। रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा, जो कि हिन्दुओं की दैनिक प्रार्थना कही जाती है, तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है।
रामचरितमानस निम्नलिखित सात "काण्डों" में विभक्त हैः
१.बालकाण्ड (१-३६१)
२.अयोध्या काण्ड (१-३२६)
पहले दो काण्डों पर कॉमिक्स का पहला भाग आधारित था, यह भाग बाकी पाँच काण्डों पर आधारित है|
३.अरण्य काण्ड (१-४६)
४.किष्किन्धा काण्ड (१-३०)
५.सुन्दर काण्ड (१-६०)
६.लंका काण्ड (१-१२१)
७.उत्तर कांड (१-१३१)
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संशोधन के पहले |
इस महाकाव्य पे जितना भी लिखा जाय कम है, विशिष्ठ पहलुओं पे फिर कभी History and Mythology ब्लॉग पे हम आगे बढ़ेंगे|
तुलसीकृत "रामचरित मानस" भाग २: उत्तरार्ध
संचयन: नरेन्द्र शर्मा
चित्रकार: रवि परांजेप
कुल पृष्ठ: ९३
स्कैन योगदानकर्ता: अनुराग दीक्षित
अगर आप इसे पढ़ना चाहते हैं तो डाउनलोड करने के लिए लिंक यहाँ नीचे उपलब्ध है:
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संशोधन के बाद |
१६०० पिक्सेल- ४९.४७ MB
या
२००० पिक्सेल - १०९.५ MB
तनिक स्कैन संशोधन में मेरा भी प्रयास शामिल है| मिसाल की तौर पे पेश है, मात्र दो पृष्टों में से एक पृष्ट जिसका एक भाग क्षतिग्रस्त था| मुख्य पृष्ठ पे मामूली सी मरम्मत और बाकि सभी चमकदार बनाने की कोशिश की है, जो शायद और भी अच्छी हो सकती थी|
उम्मीद है आप सभी निराश ना होंगे|
चलते चलते कुछ अनमोल शब्द रामचरित मानस से ही:
सचिव बैद गुरु तीनि जौं,
प्रिय बोलहिं भय आस
राज, धर्म,तन तीनि कर,
होई बेगहिं नास
अर्थात: मंत्री, बैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशा में प्रिय शब्द कहते हैं, यानि वास्तविकता को छिपाते हैं, वैसे राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का नाश निश्चित है|
~ सुन्दरकांड
खल सन कलह न भल नहिं प्रीति
अर्थात: अशांति के साथ ना कलह अच्छा, ना ही प्रेम अच्छा |
~ उत्तरकांड
दुष्टों के बारे में:
झूठई लेना झूठई देना । झूठई भोजन झूठई चबेना ॥
बोलहिं मधुर बचन जिमी मोरा। खाई महा अहि ह्रदय कठोर ॥
अर्थात: उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है । झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है| यानि लेन - देन के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक़ मारते हैं और खुद फायदा उठाकर मदद करने का ढोंग करते हैं| जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है, परन्तु ह्रदय कठोर होता है। वैसे ही दुष्ट भी ऊपर से मीठे बचन बोलते हैं, परन्तु ह्रदय के बड़े निर्दयी होते हैं ।
अवगुन सिन्धु मंदमति कामी । बेद बिदूषक परधन स्वामी ॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा । दंभ कपट जिय धरे सुबेषा ॥
अर्थात: वे अवगुणों के समुद्र , मंदबुद्धि कामी और पराये धन को लूटने वाले होते हैं । वे दूसरों से द्रोह रखते हैं। उनके ह्रदय में कपट और दंभ भरा होता है परन्तु वे सुन्दर वेश धारण किये रहते हैं|
मैं अपनी दिसी किन्ही निहोरा तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा
बायस पली अहिं अति अनुरागा होहिं निरामिष कबहूँ कि कागा
अर्थात: मैंने अपनी ओर से विनती भी की है , परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चुकेंगे। कौवों को कितना भी प्रेम से पालिए परन्तु क्या कभी मांस खाना त्याग सकते हैं|